बहरहाल मेरा यह विचार भी बना कि ज्यादा सोच-विचार के लिखने से लेख अच्छा हो जायेगा यह भ्रम रखना फिजूल है।
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बहरहाल मेरा यह विचार भी बना कि ज्यादा सोच-विचार के लिखने से लेख अच्छा हो जायेगा यह भ्रम रखना फिजूल है।
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बहरहाल मेरा यह विचार भी बना कि ज्यादा सोच-विचार के लिखने से लेख अच्छा हो जायेगा यह भ्रम रखना फिजूल है।
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और साहब खुद के बौद्धिक जुगाली समर्थ होने का भ्रम रखना ठीक है पर ऐसे सार्वजनिक स्थलों पर कहा मत करिये..
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इसलिए ऐसा भ्रम रखना मुर्खता है की भारत बर्ष ऐसे लोगो को दंड देगा जो उनके लोगो का बुरा किया है.
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यह भ्रम रखना कि यह काम “ नव-वामपंथ ” करेगा, एक छलावे से ज्यादा कुछ नहीं है, क्योंकि ऐसी किसी सियासी ताकत का आज वजूद नहीं है।
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असल में भागवत अब समझ चुके है कि संघ की सोच उन्हें लागू कर दिखानी है, इसलिये वह कोई वैसा भ्रम रखना नहीं चाहते है जैसा सुदर्शन के दौर में रहा।
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उसकी व्यक्तिगतता का अस्तित्व, यदि वह यह भ्रम रखना भी चाहता है तो दूसरों के यानि की समाज के बेहयाईपूर्ण नकार से, अस्वीकार से या बलपूर्वक चतुराई से ही थोडा़ बहुत संभव हो सकता है।